भाग 1:
कश्मीर की बर्फ़ीली वादियों में बैठा महेश अपनी नानी को चिट्ठी लिख रहा था— “नानी, इस बार की छुट्टियाँ मैं आपके पास बिताना चाहता हूँ। मम्मी-पापा भी मान गए हैं। उम्मीद है, मुझे अपनी गोद में लेने के लिए आप बेसब्री से इंतज़ार कर रही होंगी।
"आपका-नाती
महेश"
कुछ ही हफ़्तों बाद महेश ट्रेन से कलकत्ता के पास एक छोटे कस्बे पहुँचा। स्टेशन पर उसकी नानी खड़ी थीं—सफेद बालों में हल्की-सी चाँदनी झलक रही थी, और चेहरे पर वही अपनापन। नानी ने महेश को कसकर गले लगाया और बोलीं,“चलो बेटा, अब घर में रौनक आ जाएगी।”
फिर सभी ने रेलवे स्टेशन से ऑटो रिक्शा पकड़ा और नानी के घर पहुंचे,
घर पुराना था—ऊँची छतें, लकड़ी की खिड़कियाँ, और सामने छोटा-सा आँगन। महेश को यह घर बचपन से याद था, लेकिन इस बार उसे यहाँ एक अजीब-सी खामोशी महसूस हुई। जैसे हवा भी ठहरी हुई हो। पहली रात खाना खाने के बाद नानी ने दीवार पर टँगा एक पुराना ताबीज उठाया और उसे महेश की जेब में रख दिया। “इसे हमेशा साथ रखना,” उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा। महेश ने हैरानी से पूछा—“क्यों नानी? ऐसा क्यों कह रही हो?” नानी ने खिड़की की तरफ़ देखा। उस पार अँधेरे में एक टूटा-फूटा घर खड़ा था। उसकी दीवारों पर सीलन, और खिड़कियों से टिमटिमाती हल्की रोशनी झाँक रही थी। नानी ने गहरी साँस ली और बोलीं,
“वो जो सामने घर है… वहाँ बिनु दाई रहती है। वो मेरी पड़ोसन है… लेकिन उसकी बातों, उसकी दी हुई चीज़ों से दूर रहना। चाहे वो तुम्हें कितनी भी मीठी मुस्कान से बुलाए, चाहे कुछ भी खाने को दे—मत लेना। समझे?” महेश के चेहरे पर कौतूहल था—“क्यों नानी? ऐसा क्या है उसमें?” नानी की आँखों में डर झलक उठा। उन्होंने धीरे से फुसफुसाया— “वो औरत काले जादू की विद्या जानती है। जिसने भी उसकी दी हुई चीज़ ली… उसका भला कभी नहीं हुआ।” महेश सिहर गया। बाहर हवा तेज़ हो गई थी, और पड़ोसी घर की टूटी खिड़की से किसी के गुनगुनाने जैसी अजीब आवाज़ आ रही थी।
भाग 2:
नानी की बातों ने महेश को भीतर तक हिला दिया। काला जादू? किसी पड़ोसन से इतना डरना? कश्मीर की बर्फ़ और पहाड़ी किस्सों में उसने भूत-प्रेत की बातें ज़रूर सुनी थीं, लेकिन यहाँ नानी की चेतावनी अलग ही किस्म की थी। महेश ने कुछ और पूछना चाहा, मगर नानी ने उसका चेहरा देख लिया। “थक गए हो बेटा… अभी बातें करने का वक्त बहुत है। चलो, मेरे साथ रसोई में आओ।”
रसोई में कोयले की अंगीठी जल रही थी। मसालों की खुशबू और उबलती दाल की भाप ने घर में अजीब-सी सुकून की परत चढ़ा दी। नानी, मौसी और घर के बाकी लोग महेश से उसकी पढ़ाई, दोस्तों और कश्मीर की बर्फ़ीली वादियों की बातें करने लगे। महेश हँसते हुए किस्से सुनाता रहा— कैसे उसने दोस्तों के साथ बर्फ़ के गोले बनाए, और कैसे नदी का पानी जम जाने पर पूरा मोहल्ला स्केटिंग करने निकल पड़ा था सबने खूब ठहाके लगाए। नानी बार-बार उसे देख मुस्कुरातीं, जैसे बरसों बाद उनकी जिंदगी में रोशनी लौटी हो।
रात गहराने लगी। बाहर ठंडी हवा घर की टूटी-फूटी खिड़कियों से सरसराने लगी। खाना खाकर सब लोग आँगन में थोड़ी देर बैठे। आसमान में तारे झिलमिला रहे थे, लेकिन दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें गूँज रही थीं। धीरे-धीरे सब अपने कमरों में चले गए। महेश भी बिस्तर पर लेट गया। यात्रा की थकान से उसकी आँखें भारी थीं। लेकिन जैसे ही उसने करवट ली, खिड़की के पार झाँकती काली परछाईं पर उसकी निगाह पड़ी। सामने वाले घर की खिड़की में हल्की-सी रोशनी टिमटिमा रही थी। महेश ने नज़रें फेर लीं। उसे नानी की बात याद आ गई—“उस घर की तरफ़ मत देखना…” वह रज़ाई में और कसकर दुबक गया। थकान ने आखिरकार उसकी पलकों को बंद कर दिया, लेकिन भीतर कहीं एक बेचैनी अब भी हलचल मचा रही थी।
भाग 3:
अगली सुबह महेश की आँखें देर से खुलीं। कमरे में खामोशी थी। नानी हमेशा भोर में उठ जाती थीं, लेकिन अब तक तो आँगन में उनकी आवाज़ें गूँजने लगती थीं।
महेश ने घड़ी देखी—सुबह के 10 बजे!
वह घबराकर बिस्तर से उठा और भागते हुए दरवाज़ा खोला।दरवाज़े से बाहर झाँकते ही उसका दिल धक् से रह गया। गली में भीड़ जमा थी। औरतें रो रही थीं, आदमी चिल्ला रहे थे, और सबके चेहरों पर दहशत थी। महेश आँगन की रेलिंग से झुककर नीचे देखने लगा। नीचे ज़मीन पर एक छोटा-सा लड़का सफेद चादर से ढका पड़ा था। उसकी उम्र मुश्किल से सात साल रही होगी। पास खड़े लोग हड़बड़ाई हुई आवाज़ों में कह रहे थे— “कल शाम को खेलते-खेलते बिनु दाई के घर के पास चला गया था…”
“फिर रात को घर आया, सबके साथ खाना भी खाया था।”
“माँ-बाप ने डाँटा था—‘अब कभी उस ओर मत जाना!’—लेकिन…”
“…सुबह तक मर गया! नींद में ही…”
महेश की रगों में खून जम गया। लड़के का चेहरा फीका और निर्जीव था, जैसे उसकी जान नींद में ही खींच ली गई हो।
भीड़ में खड़े कुछ बुज़ुर्ग धीरे-धीरे बातें कर रहे थे—
“ये बिनु दाई का ही काम है…”
“बच्चा उसके दरवाज़े के पास क्या कर रहा था…”
“कितनी बार समझाया है लोगों को, उससे कुछ मत लेना, वहाँ मत जाना।”
महेश के कानों में नानी की बात गूँजने लगी—
“उस औरत की कोई भी चीज़ मत लेना… उसके पास मत जाना…” उसका गला सूख गया। क्या वाक़ई उस औरत के घर के पास जाने भर से मौत हो सकती है? भीड़ में से अचानक किसी की निगाह ऊपर उठी और महेश की खिड़की पर टिक गई। “अरे, यही है नानी का पोता… अभी कल ही आया है।” महेश सकपका गया और झट से खिड़की से हट गया। लेकिन उसके कानों में लोगों की फुसफुसाहट अब भी गूँज रही थी।
वह कमरे में जाकर पलंग पर बैठ गया। अब उसका मन और भी बेचैन हो उठा था।
उसके अंदर सवालों का तूफ़ान था—
क्या सच में बिनु दाई इतनी ख़तरनाक है?
क्या उसका ताबीज़ उसे बचा पाएगा?
या फिर… वह भी उस बच्चे की तरह एक शिकार बन जाएगा?
भाग 4:
उस दिन की घटना ने महेश को भीतर तक डरा दिया था।
वह छुट्टियाँ मनाने आया था, लेकिन यहाँ तो सन्नाटा और मौत का साया मंडरा रहा था। रात का खाना खाने के बाद वह लंबे समय तक चुपचाप बैठा रहा। आख़िरकार, उसने संकोच से नानी की तरफ़ देखा और धीरे से बोला— “नानी जी… बुरा मत मानिएगा, लेकिन एक सवाल पूछ सकता हूँ?” नानी ने उसे गौर से देखा, “पूछो बेटा।”
महेश हिचकिचाते हुए बोला—
“ये बिनु दाई…कौन है? जब मैं छोटा था और यहाँ आया था, तब तो यह नहीं थी। फिर यह कहाँ से आई? कहाँ की रहने वाली है? आखिर कौन है ये और सब लोग इससे इतना डरते क्यों हैं?” नानी के चेहरे पर अजीब-सी गंभीरता उतर आई। उन्होंने इशारे से कहा, “धीरे बोलो, और कोई न सुने। इस नाम को ज़ोर से मत लेना।” फिर धीमी आवाज़ में नानी बताने लगीं—
बिनु दाई का अतीत
“कोई नहीं जानता बेटा कि वह असल में कहाँ की रहने वाली है। कई साल पहले अचानक ही यहाँ आ बसी थी। उस समय उसके साथ उसका पाँच साल का पोता भी था। सुना है, उसके बेटे-बहू की हत्या हो गई थी—घर की आपसी रंजिश के चलते। पीछे सिर्फ़ वही और उसका छोटा पोता बचे थे। फिर उसने अपना सब कुछ बेच दिया और यहाँ आ गई।”
महेश ध्यान से सुन रहा था। नानी आगे बोलीं—
“शुरू में तो वह बहुत हँसमुख स्वभाव की थी। सबसे अच्छे से मिलती-जुलती थी। उसका पोता—संदीप—यहीं के स्कूल में जाने लगा था। बड़ा प्यारा बच्चा था…” नानी की आवाज़ थोड़ी भर्रा गई। “लेकिन… एक दिन खेलते-खेलते सब बच्चे पास के कुएँ के पास चले गए। हँसी-ठिठोली में किसी बच्चे ने संदीप को धक्का दे दिया। बोला—‘आजा, आज तुझे तैरना सिखाते हैं।’…और वह बेचारा सीधे कुएँ में गिर गया। लोगों ने बहुत कोशिश की, पर वह कभी ऊपर लौटकर नहीं आया। घंटों बाद उसकी लाश मिली। उस दिन बिनु दाई पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।” नानी की आँखें अब नम हो चुकी थीं। “उस घटना के बाद से… सब कुछ बदल गया। वह औरत फिर कभी पहले जैसी नहीं रही। धीरे-धीरे उसकी हँसी गायब हो गई। लोगों ने देखा कि वह अजीब तरह की साधनाएँ करने लगी… काले कपड़े पहनकर, रातों में अकेली बुदबुदाते देखी गई। और तभी से बच्चों की मौतों का सिलसिला शुरू हुआ— जो आज तक चल रहा है।”
महेश का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। तो ये है बिनु दाई का सच। एक टूटी हुई औरत, जिसने अपने पोते को खोया… और फिर शायद… अपने दर्द को काले जादू में बदल लिया।
भाग 5:
नानी कुछ देर चुप रहीं। महेश की साँसें तेज़ हो गई थीं।
उसने धीरे से पूछा— “नानी… लेकिन कल जो बच्चा मरा… वो क्यों?” नानी ने गहरी साँस छोड़ी और काँपती आवाज़ में बोलीं— “बेटा… ये जो लड़का तुमने आज सुबह देखा, वही था… जिसने सालों पहले संदीप को कुएँ में धक्का दिया था।लोगों ने तब समझा कि ये बस बच्चों की शरारत थी। लेकिन बिनु दाई ने उस दिन ठान लिया था… कि संदीप की मौत व्यर्थ नहीं जाएगी। तब से वह एक-एक करके उन्हीं बच्चों को निशाना बनाने लगी, जो उस हादसे के दिन कुएँ के पास मौजूद थे।”
महेश की आँखें फैल गईं।
“मतलब…?”
नानी धीरे से बोलीं— “हाँ। उन बच्चों में से ज़्यादातर अब ज़िंदा नहीं हैं। कोई बीमारी से मरा, कोई रात को सोते-सोते… कोई अजीब हादसों का शिकार हो गया। लोग इसे किस्मत कहते रहे… पर असलियत सब समझते थे। और जो आज सुबह मरा… वह आख़िरी बच्चा था। कई सालों से बिनु दाई उसी एक मौके की तलाश में थी। वो मौका उसे कल मिल गया।” महेश का खून सूख गया। उसे याद आया सुबह भीड़ में लोगों की फुसफुसाहट—“बच्चा उसके दरवाज़े के पास चला गया था…”
नानी की आवाज़ भारी हो गई—
“उस दिन की गलती का बदला उसने पूरा कर दिया है। संदीप के साथ खेलने वाले बच्चे अब कोई नहीं बचे। आज… आख़िरी बच्चा भी भगवान को प्यारा हो गया।” कमरे में सन्नाटा छा गया। बाहर हवा खिड़कियों को झकझोर रही थी। महेश को लगा जैसे अंधेरे में कोई छाया उसकी खिड़की से झाँक रही हो। उसका मन काँप उठा!
क्या अब… बिनु दाई की नज़रें किसी और पर टिकेंगी? जानिए कहानी के अगले भाग में, जल्द ही कहानी का अगला भाग प्रकाशित किया जायेगा!